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पुत कुपात्र हो सकता है माता कुमाता नहीं

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मैंने तुझे  स्तनपान करवाया है! राजा जोगी अगन जल़, ज्यांरी उलटी रीत। डरता रैजो फरसराम, (ऐ)थोड़ी पाल़ै प्रीत।। यह सुभाषित जिस किसी कवि ने कहा है वो अनुभूत करके कहा है।जब हम मध्यकाल का इतिहास खंगालते हैं तो ऐसे क्रूर अध्याय हमारे सामने आते हैं जिन्हें पढ़कर या सुनकर हमारा हृदय द्रवित हो उठता।पश्चिम राजस्थान में ऐसे  छोटे-मोटे  कई सामंत हुए हैं जिन्होंने अपने पूर्वजों की पुनित परंपराओं को तिलांजलि देकर ऐसे कलुषित अध्याय सृजित किए जिनका कलंक अभी तक नहीं मिट पाया है।  ऐसा ही एक किस्सा है झांफली गांव की रांणां माऊ व कोटड़ा के राणा दुर्जनसाल का   है। कोटड़ा सिद्ध मल्लीनाथजी  के वंशजों का ठिकाणा है।जहां कभी मित्र भाव को सम्पोषित करने वाले राणा बाघजी हुए थे।उन्हीं की वंश परंपरा में धनराजजी हुए और उनके माधोसिंहजी।माधोसिंहजी के दुर्जनसाल हुआ। आगे का किस्सा लिखूं उससे पूर्व रांणां माऊ का परिचय देना समीचीन समझता हूं।  कूंपा मल्लीनाथोत ने बारठ आलनसी को हड़वेचां गांव इनायत किया था। इस संदर्भ में एक पुराना दोहा दृष्टव्य है-- जुग जासी रैसी जरू,  धर मालावत नाम।  कुम्पे दियो कोड सों गढपत हड़वेचा गांम।। इन्हीं

सब कुछ खत्म हो गया

  अब जैसे सब कुछ सब कुछ खत्म सा लगता है  आँखे खुली है पर कुछ भी नही दिखता है बस ये पानी है जो कहने को तो बहुत है पर आँखों को भिगोने के बाद ये हमें छूता भी नही है  सुस्त हैं डरें से हैं काप रहे है पर किसी को कह नही सकते  हम अकेले थे पर इतना नही की भीड़ में भी सनाटा सा लगे शोर क्या है ये बस हमारे दिल का एक हिस्सा सा है इससे जादा हम नही जानते इतना चीखे इतना चिल्लाये पर हमारी किस्मत सोती रही हम हारें नही बस थके है इस डर से जो सबने हमें दिखाया हम सोचते नही बस बहाना है की हम सोच रहे है ताकि कोई हमें परेशां न करे कोई हमें धक्के से उठाये ना हम सोते नही बस पलकों को आराम देते है इस पानी ने हमारी पलकों को भीग्हो के सक्त कर दिया ह इनको नरम कर रहे है हमें जीतने की आदत कब थी पर हम कभी हारे नही लेकिन अब ये लम्हे हमे हरा रहे है , डरा रहे है हम रो भी तो नही सकते , रोकर होता क्या हैं यह भी सोच नही सकते क्युकी हम जकडे हुए है फसे हुए है ये ज्यादा सोचना हमें खा रहा ह मार रहा है लौट आओ अब बस भी करो हां लौट आओ ऐ ख़ुशी हम थक गये है बस करो हम हार रहे है हमें ऐसे देखना तो कभी तुम्हे पसंद नही था अब तुम ही हमें त

मगरा आज भी कम नहीं

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 बागी मोकमसिंह मगरा साफा स्टाईल    पारम्परिक साफे में बडे भैया तणेराजसिंह भाटी साफा / गोखरू  मगराई ठाठ में तेजमाल सिंह मगरा साफे के साथ गोखरू  Magra attitude पारम्परिक साफा कान में गोखरू जैसलमेरी पहनावे मे तेजमालसिंह मगरा एशियाड़ घूड़सवार / Dysp  एशियाड विजेता जितेन्द्र सिंह भाटी मगरा Topper Student Magra *मगरा अब भी कम नहीं* रामसिंहोत भाटियों के पूरे 24 गांव जिसमें *बईया , झिंझिनियाली के साथ-साथ  *मगरा* का भी उल्लेख एक अलग अंदाज मे किया जाता है । ऐसा इसलिए भी है कि मगरा  बसिया क्षेत्र का बहुचर्चित गांव है । एक ऐसा भी समय था जब मगरा के चर्चे हिन्द और सिन्ध  दोनों में होते थे । मगरा हर क्षेत्र में आगे था , हालांकि उस समय पढ़ाई को ज्यादा महत्व नहीं था ।   पाकिस्तान के छोड़ से लेकर पोकरण तक मगरा का रूतबा कायम था । मगरा के लोगों में यह एक खासियत प्रमूख थी कि जो भी ठान लेते थे उसको पूरा करके ही दम लेते थे । मगरा इसलिए भी अलग है कि यहां के भाटी अपनी परम्परा को अभी तक नहीं भूले हैं ,  गोल जैसलमेरी पगड़ी ,   कान में गोखरू   पहन कर जब वो चलते है , तो उनका अंदाज ( *Attitude*)  कुछ अलग ही लगता है

विश्वास

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  तुम बिन कितने आज अकेले तुम बिन कितने आज अकेले क्या हम तुमको बतलायें? अम्बर में है चाँद अकेला तारे उसके साथ तो हैं तारे भी छुप जाएँ अगर तो साथ अँधेरी रात तो हैं पर हम तो दिन रात अकेले क्या हम तुमको बतलायें..? जिन राहों पर हम-तुम संग थे वो राहें ये पूछ रही हैं कितनी तन्हा बीत चुकी हैं कितनी तन्हा और रही है दिल दो हैं, ज़ज्बात अकेले क्या हम तुमको बतलायें..? वो लम्हें क्या याद हैं तुमको जिनमें तुम-हम हमजोली थे महका-महका घर आँगन था रात दिवाली, दिन होली थे अब हैं, सब त्यौहार अकेले क्या हम तुमको बतलायें..?

अहंकार

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 #_अहंकार  अहंकार शब्द कान में पडते ही हर भारतवासी का ध्यान रावण की ओर चला जाता है। हर साल उसका पुतला जलाया जाता है। एक सन्देश जन-मानस तक पहुंचाया जाता है कि जीवन अहंकार मुक्त होना चाहिए। ऎसा क्या है अहंकार में अहम् का अस्तित्व ही तो है। अहंकार शब्द में ही एक प्रकार का वजन दिखाई पडता है। जब भी व्यक्ति के मन में स्वयं का महत्व सर्वोपरि हो जाता है, अहंकार परिलक्षित होता है। व्यक्ति जो सोचता है, उसी को सही मानता है। जो करता है, उसी को सही मानता है तथा दूसरों से अपेक्षा भी रखता है कि उसकी बात स्वीकार करें। प्रशंसा सुनने को ही सही मानता है, आलोचना जरा भी सहन नहीं कर सकता। प्रतिक्रियावादी बन जाता है। स्वयं आलोचना के मार्ग पर चलता है। क्रोध तो उसका प्रथम लक्षण हो जाता है। स्वभाव में व्यग्रता आ जाती है। धैर्य और धृति कमजोर पड जाती हैं। प्रमाद भी अहंकारसूचक है। अहंकार से चित्त में अशान्ति पैदा हो जाती है, चिन्तन असन्तुलित हो जाता है, मिथ्या-दृष्टि उत्पन्न होती है। अहंकार एक प्रकार का रोग ही है, किन्तु व्यक्ति को इसका भान भी नहीं होता। बढते अहंकार के साथ उसकी मैत्री घटती जाती है। अहंकार जीवन को

भाटियों के प्रतीक एव संक्षिप्त जानकारी

भाटी वंश के प्रतीक एवं मान्यताएँ-  1 वंश - चंद्र वंश  2 कुल - यदु/यादव  3 कुल देवता - श्री लक्ष्मीनाथ जी  4 कुल देवी - श्री स्वांगिया जी  5 इष्ट देव - श्री कृष्ण जी  6 गोत्र - अत्रि  7 वेद - यजुर्वेद  8 ध्वज - केसरिया  9 छत्र - मेघाडम्बर  10 ढोल - भंवर  11 नक्कारा - अग्नजोत  12 पुरोहित - पुष्करणा  13 गुरु - रतननाथ  14 प्रोलपात - रतनु चारण  15 महाराजा की पदवी - महारावल  16 महारावल का विड्द - छत्राला यादव पति  17 विड्द - उत्तर भड़ किंवाड़ भाटी  18 अभिवादन - जय श्री कृष्ण  19 नदी - यमुना, गोमती  20 वृक्ष - पीपल, कदम्ब  21 पक्षी - खंजन, पालम  22 माला - वैजयन्ती  23 राग - मांड  24 सूत्र - पारस्कर गृह सूत्र  25 ऋषि - दुर्वासा  26 दर्शन - नाथ मुद्रा  27 पूरी - द्वारिका  28 पाट गद्दी - मथुरा  29 ढाढी - डग्गो  30 राव - मालदेव  31 गंगा घाट -सौरम  32 निकास - गंगापार  33 बन्दूक - भूतान  34 शिक्षा - दक्षिणा  35 मोहता - चांडक माहेश्वरी  36 दीवान टावरी मोहता  37 कण्ठी - वैष्णवी  38 शाखा - वासनेयी  39 ठाकुरजी - सालिगराम  40 प्रवर - अत्रि, आत्रेय, शतातप  41 धोती - पीताम्बरी  42 तलवार- रतलामी 43अखाड़ा - तु