जय मालन शक्ति

इस बार कौन जीतेगा?

वह जो आपको मूर्ख समझता है
या आप जो उसे मूर्ख समझते हैं।

चुनाव परिणाम के पूर्वानुमानों ने इस लतीफे की हत्या कर दी है। किसी लतीफे की हत्या केवल कोई दूजा लतीफा ही कर सकता है। जैसे लोहा लोहे को काटता है। ज़हर से ज़हर उतरता है। जंगल की आग को बुझाने के लिए थोड़ी दूर नई आग लगाई जाती है।

इस बार के चुनाव में एक नयी बात सामने आई है।

पूरे भारत में हर जगह दो जातियों के बीच प्रतिस्पर्धा उपस्थित है। ये कोई कुछ बरसों में बनी बात नहीं है। ये वर्तमान के सामाजिक ढांचे का बुनियादी भाग है, जो रूढ़िवाद से बाहर न आ पाने के कारण यथावत है। मैं इसे रूढ़िवाद समझता हूँ हो सकता है आप इसे विशिष्टता समझते हों। आप मानते हों कि जाट, राजपूत, मेघवाल या किसी भी जाति का होना गर्व की बात है तो आपको मैं बधाई देना चाहता हूँ कि अब आप एक क़दम और आगे बढ़ गए हैं। 

अब जाट और राजपूत की लड़ाई खत्म हो गयी है। अब गोत्रों की लड़ाइयाँ आरंभ हो चुकी है।

मैंने पिछले आठ-नौ बरस से टीवी पर समाचार नहीं देखे। मैंने अख़बारों को सुबह उठते ही नहीं पढ़ा। मैं दफ़्तर जाता हूँ। दफ़्तर से बाज़ार जाना होता है। अनेकानेक लोगों से नियमित मिलना होता है। मैं उनको दो-ढाई घंटे सुनता हूँ। उनकी बातों से मुझे मालूम होता है कि समाज में, हमारे आस पास और मित्रों के जीवन में क्या चल रहा है।

मैं अपने दो मित्रों के साथ रेखजी की चाय की थड़ी पर चाय पी रहा था। हमारे पास में खड़े दो-तीन लोगों की बातचीत ने मेरा ध्यान आकर्षित कर लिया। उनका कहना था कि चुनाव में कोई भी खड़ा हो। बेनिवालों ने ये तय किया है कि वे उस उम्मीदवार को वोट देंगे जिसे हनुमान बेनीवाल सपोर्ट करेंगे। इस बात को आगे बढ़ाते हुये उन्होने दो नेताओं के नाम लिए कि वे वोट मांगने गए थे लेकिन उनको साफ मना कर दिया गया। "म्हे तो बिण्याल हों। म्होरा नेता हड़मान जी। थे माथो मत फोड़ो"

पान की दुकान पर एक मित्र ने कहा- "सोढ़ा राजपूत सब एक हुये हैं। उन्होने तय किया है कि मानवेंद्र जी को वोट नहीं देंगे।" जिस समय ये बात सुनी, मैं एक नासमझ बच्चे की तरह सबका मुंह देखने लगा। मुझे ऐसे देखते हुये देखकर दो और मित्रों ने विश्वास दिलाया। चुनाव बाद सोढ़ों के एक गाँव की ख़बर सुनी कि अस्सी फीसद वोट कैलाश जी को पड़े हैं।

पहले जाटों को जाट नाम पर, राजपूतों को राजपूत के नाम पर एक किया जाता था। इस तरह वोट बैंक बनता। सँख्याबल में छोटी जातियों को उनके मठाधीशों के माध्यम से फतवे दिलाये जाते थे। जितनी जातियाँ उतने मठ। उतने ही मठाधीश। वे जो कह देते वह होने लगता।

अब हम जाति से गोत्र पर आ गए हैं। आने वाले समय में भारोंणि, कोटड़िया, नाथोंणि, चोखोंणि जैसे बँटवारे तक पहुँच जाएंगे। इससे आगे कहाँ जाएंगे? मनुष्य समाज से धर्म समाज, आगे संप्रदाय, आगे जाति, आगे गोत्र आगे मनुष्य होने से मुक्ति।
शुभकामनाएं।

कल शाम मेरी फेसबुक वाल राजनीतिक ग़ुलामों की पोस्ट्स से भर गयी। जो राजनीतिक ग़ुलाम चुनाव के दौरान पकड़ में आए, उनको मैंने बाहर कर दिया था लेकिन कुछ अभी भी बचे हुये हैं। उनका जीना-मरना, सोचना-विचारना, बोलना-बतलाना, सांस लेना, आहें भरना सब कुछ एक पार्टी ही है।

धर्म, दर्शन, विज्ञान, समाज और आवश्यक रूप से राजनीति को न पढ़ने वाले ये राजनैतिक मानसिक ग़ुलाम कैसे बर्दाश्त किए जाएँ? मुझे कभी समझ न आया।

मेरे अपने लोग दिन भर इसी काम में लगे रहते हैं। वे अपने माँ-बाप और बच्चों के साथ समय कब बिताते हैं। समझ नहीं आता। वे अपने काम में क्या नया पाते हैं। उनको अपना बचपन कैसे याद आता है। उनका गाँव कैसे बदल गया है। कैसे कष्टों से उबर कर हम नई सदी में आए हैं। हमारे पुरखे पानी के लिए, भोजन के लिए, यात्रा के लिए, जीने के लिए कितना संघर्ष करते थे? उन स्मृतियों को नहीं लिखते।

पहले राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हुआ करते थे। अब असल में संक्रमण के कॅरियर रह गए हैं। जैसे एक जानवर मुंहपका-खुरपका बीमारी को जिस तेज़ी से दूजे जानवरों में बांटता है उसी तरह ये भी हो गए हैं। सच्चा झूठा जो मिला उसे आगे बढ़ा दिया। सोशल साइट्स का गुण ही सबसे बड़ा रोग है। सोशल साइट्स पर मिलने वाली नक़ली वाह-वाही का लालच ऐसे ग़ुलामों की संख्या बढ़ाता जाता है।

अब मनोरोग से घिरे कुछ लोग चुनाव परिणाम पर असंगत व्यवहार करेंगे। कैसा व्यवहार होगा? आप जानते हैं। कभी क्रिकेट मैच को लेकर टीवी फोड़ देने वाले और जान देने वाले लोग हुआ करते थे। फिर राजनेताओं के लिए आत्महत्या करने वाली पीढ़ी आई। अब लोग जान कम देते हैं लेकिन किसी अप्रत्याशित परिणाम पर मानसिक ग़ुलाम पीढ़ी क्या क़दम उठाएगी? वे कुछ तो करेंगे ही। इसे आप गंभीरता से नहीं सोच रहे हैं।

इस रोग से बचाव और अपने मन मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए मैं कुछ बातों पर ध्यान देता हूँ।

वह बोलें, जो वास्तव में आप कहना चाहते हैं। अपने और किसी अन्य के विरुद्ध अपभाषण न करें। सत्य और प्रेम को बढ़ाने वाली बात कहें।

किसी की कही हुई बात को व्यक्तिगत न लें। हर व्यक्ति का अपना मत, कार्यशैली और संस्कार होते हैं। उसे अपना काम करने दीजिये। सम्भव है उसकी बातें आपको आहत कर रही हो किन्तु याद रखिए कि बचाव ही सबसे बड़ा उपचार है। उससे बचिए।

अलग विचारधारा वाले दोस्तों से किनारा मत कीजिये। उनके साथ गहराई से बने रहिए। एक ही जाति के मित्रों के समूह से बाहर आइये। जाति और धर्म से ऊपर उठकर आशावान, कर्मशील और श्रमजीवी मित्रों के समूह में रहिए।

इससे भी आवश्यक है कि याद रखें दुनिया का अंत नहीं होने जा रहा है। मनुष्य जीवन की तुलना में दुनिया की उम्र अकल्पनीय है। हम कुछ नहीं हैं। हमारे जैसे चींटे-कीड़े आते जाते रहेंगे। इसलिए केवल इस पल को प्रेम, सहयोग और भाईचारे से बिताने का प्रयास करें। ये प्रयास आपको सुख से भरेगा कि आपने कुछ अच्छा करना चाहा।

प्रत्येक परिणाम का सम्मान कीजिये। उसे निजी विजय-पराजय न बनाएँ। मन से बीमार न हों। जाति और गोत्रों में मत बंटिए। मनुष्य बनिए। यही प्रार्थना है।
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तस्वीर बाड़मेर के स्टेशन रोड की है। मेरा रेगिस्तान, मेरे रेगिस्तान का एक क़स्बा।

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